Tuesday, February 17, 2009

मानव ही मानव को मार रहा है

अल्लाह ने तुझे भेजा था यह सोचकर,
तुझे यह इन्सानरूप दिया था कुछ सोचकर,
तेरे से उम्मीद की थी बहुत सोचकर,
मगर यह क्या,
तू तो अल्लाह के नाम पर ही,
अल्लाह के रूप को ही,
तहस-नहस किए चला जा रहा है

तुझे यह इजाजत किसने दी?

सुन अल्लाह की,
इक दिन तुझे भी जाना है,
फिर यह क्यूँ पाप किए चला जा रहा है?

अरे उस अनाथ से जाके पूछ,
जिसके ऊपर से,
पिता का साया तुने हटा दिया
उसे क्या पता था कि,
यह साया, छाया देने अब कभी नहीं पाएगा

उस बिलखती माँ से जाके पूछ,
जिसकी इकलौती उम्मीद को,
तुने स्वर्ग में भेज दिया,
उस माँ को क्या पता था कि,
उम्मीदों के आगोश में,
इंसान गड्ढों में समा जाता है

उस विधवा से जाके पूछ जो,
अपने पति का इंतज़ार,
भूखे पेट कर रही थी,
उसे क्या पता था कि,
इंतज़ार कि घड़ी चलती ही जायेगी

इन मासूमों ने क्या ग़लत किया,
जिंदगी को बसने से पहले ही उजाड़ दिया

"मानव" , अरे! मुझे क्षमा करना,यह में क्या बोल गया?
तू मानव कहाँ ? तू तो दरिंदा है

इंसान कि गलती तो वाजिब है,
पर अल्लाह! तूने यह कैसे कर दिया?

यहाँ तो धर्म के नाम पर,
कौम् के नाम पर,
मानव ही मानव को मार रहा है

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